वो पाकिस्तानी गायिका, जिसने जनरल जिया उल हक के बैन के बाद भी लाहौर में गाई फै़ज़ की नज़्म

क्रांतिकारी शायर फै़ज़ अहमद फैज की एक नज़्म को लेकर कानपुर आईआईटी में विवाद हो गया. इसके बाद वो पूरे भारत में फैल गया. इसके बाद फै़ज़ के पक्ष और विपक्ष दोनों में तमाम बातें कही जा रही हैं. फै़ज़ अहमद की नज़म आमतौर पर पाकिस्तान के हुक्मरानों के सीने में नश्तर में तीर की तरह चुभती रही हैं. पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जिया उल हक ने तो फै़ज़ के नज्मों को सार्वजनिक तौर पर गाने पर ही प्रतिबंध लगा दिया था. तब पाकिस्तान में एक महिला ने काली साड़ी पहनकर लाहौर के स्टेडियम में खुलेआम इसे हजारों लोगों के सामने गाया था.


ये वही गाना है, जिस पर भारत में विवाद मचा हुआ है. हालांकि इसका अंग्रेजी और हिंदी दोनों तर्जुमा आ चुका है. दोनों में कोई ऐसी बात नहीं है, जिसे आपत्तिजनक कहा जा सके. अब बात उस महिला की, जिसने फै़ज़ की नज़्म गाकर पाकिस्तान में तब सनसनी मचाई थी, जब लोग जिया उल हक के आदेश के खिलाफ जाने में थर-थर कांपते थे.


वो थीं इकबाल बानो


उस महिला का नाम है इकबाल बानो . वो भारत में पैदा हुईं. पाकिस्तान में गजल गायिका के तौर पर उन्हें खूब शोहरत मिली. उनकी शोहरत तब दिन दूनी और रात चौगुनी हो गई जब उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दिए जाने के विरोध में फैज की नज़्म "हम देखेंगे" गाई थी.


इकबाल बानो साहसी महिला थीं. परंपरा और आधुनिकता को बखूबी साथ लेकर चलने वाली गजल गायिका. वो पाकिस्तान में स्टार गायिका थीं. उन्होंने 1960 के दशक के फैज की तमाम नज़्मों को आवाज देनी शुरू की.



गजल गाई तो ठुमरी और फिल्मों में गाने भी 


बानो 27 अगस्त 1935 में दिल्ली में पैदा हुईं. हालांकि जडे़ं हरियाणा के रोहतक में थीं. शादी के बाद उन्होंने पाकिस्तान को अपना घर बनाया. साहस और क्रांति उनके खून में थी. इसी से वो पाकिस्तान में पहचान बनीं. वैसे बानो ने गजल और ठुमरी भी गाई. 50 के दशक में उन्होंने फिल्मों के तमाम गीत गाए. 2009 में उनका इंतकाल हो गया.


लोग उन्हें याद रखते हैं फै़ज़ की गाई नज़्म "हम देखेंगे" से 


लोग असल में उन्हें फ़ैज़ की मशहूर नज़्म 'हम देखेंगे' की गायिका के तौर पर ज्यादा जानते हैं. आखिर उन्होंने किया ही ऐसा साहस का काम था. जिया उल हक ने सत्ता पर काबिज होने के बाद पाकिस्तान में गैर इस्लामिक लिबास पर पाबंदी लगा दी. तब पुरानी दिल्ली से पाकिस्तान जा बसीं इकबाल बानो ने विरोध जताने के लिए काली साड़ी पहनी. तब सारे ज़माने ने देखा कि जिया उल इस महिला की आवाज को नहीं दबा पाए.


कितनी हैरानी की बात थी कि पाकिस्तान के मुस्लिम समाज में एक औरत खुलेआम एक तानाशाह को चुनौती दे रही थी.


जिया ने महिलाओं से कहा था क्या पहनें और क्या नहीं


जिया उल हक ने जब खुद को पाकिस्तान का राष्ट्रपति घोषित किया था तो उन्होंने धर्म और इस्लाम को लेकर अपने तरह से देश में एक व्यवस्था बना दी थी. जिसमें फैज जैसे शायरों को सार्वजनिक तौर पर गाना किसी अपराध से कम नहीं था. जिया ने 1985 में महिलाओं को मजबूर किया कि वो इस्लाम के दायरे में किस तरह रहें और क्या पहनें-क्या नहीं पहनें.


साड़ी बैन थी और बानो ने यही पहन गाया "हम देखेंगे"


ये महिलाओं की अस्मिता और आजादी पर भी हमला था. ऐसे में पाकिस्तान में साड़ी पहनना किसी गुनाह से कम नहीं था. साड़ी को भारतीय संस्कृति का हिस्सा मानते हुए पाकिस्तान में प्रतिबंधित कर दिया गया था. ऐसे में पाकिस्तान की सबसे लोकप्रिय और पसंदीदा गायिका बानो ने जिया के हुक्मनामे का विरोध अपने तरीके से किया.


ब्लैक मार्केट में खूब बिके थे बानो के टेप


वो खूबसूरत काली साड़ी में लाहौर के स्टेडियम गईं. वहां 50 हजार से ज्यादा लोग जुटे हुए थे. वहां उन्होंने फै़ज़ की प्रतिबंधित नज़्म "हम देखेंगे" सुनाई. पुरजोर आवाज में सुनाई. इसके बाद तो "हम देखेंगे" पाकिस्तान में विरोध के नारे की तरह छा गया. हालांकि उन्हें इस साहस की कीमत चुकानी पड़ी. आधिकारिक तौर पर उनके सार्वजनिक कंसर्ट पर पाबंदी लगा दी गई. टेलीविजन पर उनके प्रोग्राम रोक दिये गए. लेकिन लोगों ने ब्लैक मार्केट से उनके इस गाने के टेप बेतहाशा खरीदे. बानो की फैन फॉलोइंग समय के साथ बढ़ती रही.


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